मनगवा के पुलिस का मादक पदार्थों में खेल: पुलिसकर्मियों की सेटिंग से हुआ था लाखों का बारा-न्यारा

रीवा। मनगवा थाना क्षेत्र में मादक पदार्थों की अवैध बिक्री का मामला पुलिस महकमे की कार्यशैली पर सवाल खड़े कर रहा है। थाना प्रभारी द्वारा अपने ही आरक्षकों पर गंभीर आरोप लगाते हुए इनकी शिकायत वरिष्ठ अधिकारियो तक पहुंचाई गई थी लेकिन महीनो बीतने के बाद भी जांच अभी तक ठंडे बस्ते में ही रह गयी है। आरोप है कि पुलिसकर्मियों ने नशे के कारोबारी के साथ सेटिंग कर लाखों रुपये का मादक पदार्थ बेचवा कर अपनी जेब भरा करते थे इन पुलिस कर्मियों की पोल थाना प्रभारी ने मनगवां रहते हुए खोला था ।
तस्कर के पकडे जाने पर हुआ खुलासा
गाजा तस्कर भोला जैसवाल के पकडे जाने पर उसके मोबाईल फ़ोन से तीनो पुलिस कर्मियों का खुलासा हुआ था की लम्बे समय से मादक पदार्थ की तस्करी में मनगवां के पुलिसकर्मी अपनी नौकरी को ताक में रख कर तस्करो को खुश करने की खोशिश में उनकी मददत करते थे उसके एवज में मोटी रकम से नवाजा जाता था ।
सूत्रों के मुताबिक, मनगवा थाना क्षेत्र में लंबे समय से मादक पदार्थ ( नशे) का कारोबार फल-फूल रहा है। इस काले धंधे में स्थानीय स्तर पर पुलिस की मिलीभगत की बात सामने आई थी। थाना प्रभारी ने स्वयं अपनी कार्यवाही के दौरान तीन आरक्षकों को संलिप्त पाया था जिसमे अखिल, अशोक, और अर्पित नामक कर्मचारियों की करतूत उजागर हुई थी जिसकी शिकायत वरिष्ठ अधिकारियो को साक्ष्य सहित की गई थी जिसके वाद इनकी जांच चालू कर दी गई थी। जिसमें मामले की जांच एडिशनल एसपी को सौंपी गई थी, लेकिन आश्चर्यजनक रूप से वह शिकायत ही फाइल से गायब हो गई। इसके बाद न तो जांच आगे बढ़ पाई और न ही किसी दोषी पर ठोस कार्रवाई हो सकी।
खास बात यह है कि शुरुआती जांच में तीन पुलिसकर्मियों की संलिप्तता सामने आई थी। नियमों के अनुसार, ऐसे कर्मचारियों को लाइन अटैच कर विभागीय जांच पूरी होने तक थाने से दूर रखा जाना था। पुलिस मुख्यालय का आदेश भी यही कहता है कि जिन पर जांच लंबित हो, उन्हें किसी थाने पर तैनात नहीं किया जाएगा। मगर हकीकत इसके बिल्कुल उलट है। तीनों ही आरक्षक अलग-अलग थानों में अपनी सेवाएं देते हुए फिर से वैसी ही कथित गतिविधियों में लिप्त हैं, जैसा कि मनगवा थाना क्षेत्र में किया गया था।
बताया जा रहा है कि ये आरक्षक जिस भी थाने में पहुंचते हैं, वहां छोटे-मोटे अपराधियों और अवैध कारोबारियों के साथ सांठगांठ कर मोटी रकम वसूलते हैं। नशे और अवैध कारोबार पर अंकुश लगाने की बजाय यह गुट स्वयं वसूली में जुटा रहता है। थाना प्रभारी की शिकायत से यह स्पष्ट हुआ था कि पुलिस का एक हिस्सा कानून के बजाय लाभ के रास्ते को चुन चुका है।
मामले में सबसे बड़ा सवाल यही उठ रहा है कि आखिर एडिशनल एसपी के पास जांच के लिए गई शिकायत अचानक कैसे गायब हो गई? क्या यह किसी बड़े दबाव या जानबूझकर की गई लापरवाही का नतीजा था? पुलिस विभाग के उच्चाधिकारी भी इस मामले पर चुप्पी साधे हुए हैं, जिससे संदेह और गहराता जा रहा है।
इस घटनाक्रम ने रीवा पुलिस की छवि को गहरी चोट पहुंचाई है। जनता का भरोसा पुलिस पर तभी कायम रह सकता है जब ऐसे मामलों की पारदर्शी जांच हो और दोषी कर्मचारियों पर सख्त कार्रवाई की जाए। मगर वास्तविकता यह है कि जांच लंबित रहते हुए भी आरोपी पुलिसकर्मी न केवल ड्यूटी पर बने हुए हैं बल्कि कथित रूप से अवैध वसूली और संरक्षण का खेल जारी रखे हुए हैं।
अब सवाल यह उठता है कि क्या उच्च स्तर पर कोई गंभीर कदम उठाया जाएगा या फिर यह मामला भी दबा दिया जाएगा। अगर कार्रवाई नहीं हुई तो यह संदेश जाएगा कि मादक पदार्थों के खिलाफ लड़ाई केवल कागजों तक सीमित है और कानून के रखवाले ही कानून तोड़ने में आगे हैं।