
लेखक : प्रो. (डा.) मनमोहन प्रकाश
इतिहास में ‘अगर’ शब्द अपनी अपार संभावनाओं से युगों को झकझोर देता है। राष्ट्र-निर्माण के संदर्भ में भी एक प्रश्न सतत भारतीयों के मन में गूंजता रहता है कि यदि सरदार वल्लभभाई पटेल भारत के प्रथम प्रधानमंत्री होते, तो राष्ट्र की दिशा और दशा कैसी होती?वस्तुतः यह केवल कल्पना नहीं, बल्कि इतिहास की संभावनाओं की गंभीर पड़ताल है।
लौह संकल्प के निर्माता सरदार पटेल भारतीय स्वतंत्रता आंदोलन के उन महामानवों में थे जिन्होंने तलवार नहीं, बल्कि संगठन-शक्ति, दृढ़ इच्छाशक्ति और अद्वितीय प्रशासनिक दृष्टि एवं क्षमता से भारत के भूगोल और चेतना का पुनर्निर्माण किया। “लौहपुरुष” उपाधि केवल उनकी कठोरता का नहीं, बल्कि अनुशासित व्यवहार और निर्णयात्मक नेतृत्व का प्रतीक थी।उन्होंने लगभग 562 रियासतों को भारतीय संघ में सम्मिलित कर यह सिद्ध कर दिया कि राजनीतिक इच्छाशक्ति जब राष्ट्रीय उद्देश्य से प्रेरित हो, तो असंभव भी संभव हो जाता है।
मेरा ऐसा मानना है कि  यदि सरदार पटेल भारत के प्रथम प्रधानमंत्री होते, तो भारत का संघीय ढाँचा और भी संयमित एवं सुदृढ़ होता। हैदराबाद, जूनागढ़ और कश्मीर जैसे जटिल प्रश्नों को जिस निर्णायकता से उन्होंने गृह मंत्री रहते हुए सुलझाया, उसी दृष्टि से वे सीमांत समस्याओं विशेषकर पाकिस्तान, तिब्बत और पूर्वोत्तर सीमा के लिए प्रारंभिक स्तर पर कठोर और व्यावहारिक नीतियाँ अपनाते। संभवतः राज्य बनाम केंद्र का संघर्ष जिस रूप में बाद के दशकों में उभरा, उसकी तीव्रता बहुत कम होती।शासन में अनुशासन और उत्तरदायित्व चरम पर होता।
वास्तव में आदरणीय पटेल जी अपने समय के सर्वाधिक व्यावहारिक प्रशासक थे। उन्होंने स्वतंत्र भारत की भारतीय प्रशासनिक सेवा  और भारतीय पुलिस सेवा  की स्थापना सुनिश्चित की ताकि नवगठित भारत को एक अनुभवी, निष्पक्ष और राष्ट्रनिष्ठ नौकरशाही मिल सके। यदि वे प्रधानमंत्री होते, तो शासन-तंत्र में ‘कर्तव्य अनुशासन’ सर्वोच्च पर होता। निर्णय क्षमता और क्रियान्वयन का संतुलन स्थापित होता। “कम योजनाएँ, अधिक परिणाम”  ध्येय बनता। 
पटेल जी  की अंतरराष्ट्रीय दृष्टि आदर्शवाद से नहीं, राष्ट्रीय सुरक्षा और स्वाभिमान की व्यावहारिकता से प्रेरित थी। 1949 में ही उन्होंने नेहरू को पत्र लिखकर चेताया था कि “चीन की नीति पर भरोसा करना भविष्य में महँगा साबित होगा।”यदि वे प्रधानमंत्री होते, तो शायद भारत की विदेश नीति “भारत पहले” के सिद्धांत पर आधारित होती। पंचशील के आदर्श सिद्धान्त के स्थान पर वे सामरिक तैयारी और सीमा सुरक्षा को प्राथमिकता देते। सम्भवतः 1962 का चीन युद्ध या तो टल जाता, या भारत उससे कहीं अधिक सामरिक तैयारी के साथ लड़ता।
किसान-पुत्र होने के नाते पटेल जी भलीभाँति जानते थे कि भारत की आत्मा गाँवों में बसती है। यदि वे प्रधानमंत्री होते, तो कृषि-सुधार और ग्रामीण स्वावलंबन आर्थिक नीति का अभिन्न अंग बनते। वे निजी क्षेत्र और सहकारिता के बीच संतुलन स्थापित करते। केंद्रीकृत योजना व्यवस्था के स्थान पर वे उत्पादन बढ़ाने में जन-सहभागिता को महत्व देते। संभवतः “आत्मनिर्भर भारत” का विचार उसी दौर में नीति का मूल दर्शन बन जाता। इतना ही नहीं पटेल जी संविधान सभा में व्यवहारिक और स्पष्ट चिंतन के पक्षधर थे। वे लोकतंत्र को केवल मताधिकार नहीं, बल्कि कर्तव्य-शासन मानते थे। यदि वे प्रधानमंत्री होते, तो राजनीतिक दलों में वैचारिक अनुशासन और राष्ट्रहित सर्वोच्च मूल्य होता। गुटबाजी और व्यक्तिगत सत्ता-लालसा को वे प्रारंभ में ही नियंत्रित कर लेते, जिससे शासन-सातत्य और नीति-स्थिरता अधिक मजबूत होती।
पटेल जी की धर्मनिरपेक्षता भारतीय परंपरा की समन्वय भावना पर आधारित थी जिसमें सभी धर्म एक ही लक्ष्य की ओर अग्रसर माने जाते हैं। वे धार्मिक सहिष्णुता को जीवन-मूल्य मानते थे, किंतु राष्ट्रहित के प्रतिकूल उग्र या विभाजनकारी आग्रहों को कभी सहन नहीं करते। यदि वे प्रधानमंत्री होते, तो भारत की धर्मनिरपेक्षता सांस्कृतिक समरसता पर अधिक आधारित होती, न कि पश्चिमी निरपेक्षता के आयातित मॉडल पर।
निष्कर्ष रूप में यह कहा जा सकता है कि यह भारत का दुर्भाग्य ही था कि उसे सरदार पटेल जैसा कर्मनिष्ठ राष्ट्रशिल्पी प्रधानमंत्री के रूप में नहीं मिल सका। यदि वे होते, तो भारत की नींव अधिक मजबूत, सीमाएँ अधिक सुरक्षित, शासन अधिक अनुशासित और आर्थिक नीति अधिक स्वावलंबी होती।
इतिहास बदल नहीं सकता, पर उससे दिशा ली जा सकती है। आज जब भारत “विकसित राष्ट्र” की राह पर अग्रसर है, तब पटेल का सन्देश हमें स्मरण कराता है कि “एकता ही शक्ति है; और राष्ट्रहित से बढ़कर कोई स्वार्थ नहीं।”
 
				

