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रीवा रेंज में कवर-अप कांड की आहट? जांच रोकने से लेकर आरोपी बचाने तक सूत्रों की परतें खोल रहीं नई हलचल

रीवा। रेंज का माहौल इन दिनों किसी तपते पत्थर जैसा लग रहा है ऊपर से ठंडा, पर भीतर से झुलसाता हुआ। पुलिस तंत्र के भीतर की हलचलें अब बाहर तक सुनाई देने लगी हैं। स्थानीय सूत्रों और विभागीय गलियारों में घूमती फुसफुसाहटें बताती हैं कि रेंज में तैनात कुछ पुलिसकर्मियों के गंभीर और संवेदनशील मामलों पर ऊपरी स्तर से ऐसी परछाइयाँ पड़ रही हैं, जिनसे कार्रवाई की दिशा धुँधली दिखने लगी है।

बीते महीने सामने आया गांजा तस्करी मामला इस पूरे घटनाक्रम का केंद्रबिंदु बना हुआ है। इस केस की कार्रवाई के दौरान एक दूसरे आरोपी का नाम उभरा, जिसने हालात को और जटिल बना दिया। जांच से जुड़े सूत्रों का दावा है कि जैसे ही इस आरोपी का नाम सामने आया, उसके बाद रेंज स्तर पर विशेष रुचि देखी गई। चर्चा इतनी तेज़ चली कि कई हलकों में यह सवाल तैरता रहा क्या इस आरोपी को बचाने की कोशिश हो रही है?

चर्चाएँ तो यहाँ तक हैं कि रेंज के एक वरिष्ठ अधिकारी द्वारा अपने प्रभाव, पद और अधिकार का उपयोग कर जांच  प्रभारी को कुछ बिंदुओं पर निर्देशित किए जाने की बातें बीते हफ्ते सुर्खियाँ बन गईं। यह सब आरोप नहीं, बल्कि चर्चा और दावों की वह धुँध है जिसमें कई तरह की आकृतियाँ दिखाई देती हैं कुछ स्पष्ट, कुछ धुँधली और कुछ इशारों में छुपी हुई।

जांच  प्रभारी और रेंज कार्यालय के बीच हुई कथित बहसबाज़ी अब सार्वजनिक बहस बन चुकी है। सूत्र बताते हैं कि यह बहस किसी मामूली मतभेद का मामला नहीं था, बल्कि कार्रवाई की मूल दिशा को लेकर खिंचे दो ध्रुवों का संकेत था। एक तरफ  जांच  प्रभारी उस दूसरे आरोपी को लेकर कार्रवाई बढ़ाना चाहते थे, तो दूसरी ओर कथित तौर पर रेंज स्तर से यह कहा जा रहा था कि  दूसरे आरोपी का नाम हटाओ। यही रस्साकशी अब इस पूरे मामले का सबसे धधकता पहलू बन चुकी है।

इधर स्थानीय सूत्रों का कहना है कि केवल यही एक प्रकरण नहीं, बल्कि कुछ पुराने विवाद, लंबित विभागीय जांचें और पुलिसकर्मियों पर लगे गंभीर आरोप भी फिर चर्चा में लौट आए हैं। सवाल उठ रहा है कि क्या यह सब संयोग है, या फिर कहीं किसी बड़े कवर-अप की श्रृंखला अपना आकार ले रही है?

रीवा रेंज में कार्यशैली, अनुशासन और पारदर्शिता को लेकर लगातार सवाल उठते रहे हैं । लेकिन हाल की घटनाओं ने जैसे इन सवालों को और पैना कर दिया है। जनता में चर्चाएँ हैं कि जब कार्रवाई शुरू होती है तो किसी अदृश्य दीवार से टकराकर उसकी रफ्तार धीमी पड़ जाती है। कई जानकारों का यह भी कहना है कि यदि किसी आरोपी को बचाने या किसी कार्रवाई को निर्देशित करने जैसी बातें सच हैं  तो यह स्थिति पुलिस तंत्र की विश्वसनीयता पर गहरी चोट करती है।

वहीं, कुछ अनुभवी अधिकारी यह भी मानते हैं कि कई बार विभागीय प्रक्रियाएँ आम लोगों को धीमी लगती हैं, जबकि असल में वे कानूनी औपचारिकताओं में उलझी होती हैं। लेकिन सवाल यह है कि यदि सब कुछ सामान्य है, तो फिर ये फुसफुसाहटें, ये बहसबाज़ी की खबरें, और आरोपी बचाए जाने की चर्चाएँ इतनी तेज़ क्यों हैं?

अभी तक रेंज स्तर से कोई आधिकारिक बयान नहीं आया है। लेकिन जनता इंतज़ार में है और यह इंतज़ार किसी शांत नदी की तरह नहीं, बल्कि उस बेचैन लहरों की तरह है जो चट्टानों से टकराकर आवाज़ पैदा करती हैं।

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