भारत में चिन्तनीय समस्या बनती महिला सुरक्षा
Dainikmediaauditor स्वतंत्रता के 78 वर्ष बाद भी देश के विभिन्न शहरों, कस्बों से महिलाओं के साथ छेड़छाड़, अपहरण से लेकर बलात्कार और उसके उपरांत हत्या तक की खबरें(कम उम्र की बच्चियों से लेकर अधेड़ उम्र की महिला तक) आए दिन सुनने और पढ़ने को मिल जाती हैं। कोलकाता में हाल ही में महिला डाक्टर के साथ कार्यस्थल पर हुआ बलात्कार और हत्या तथा महाराष्ट्र के बदलापुर (ठाणे) के एक स्कूल में दो बच्चियों के साथ हुए कुकृत्य, छत्तीसगढ़ में रायगढ़ जिले के पुसौर थाना क्षेत्र में पंद्रह युवकों द्वारा एक महिला के साथ सामुहिक दुष्कर्म, मुरादाबाद के अस्पताल में नर्स से दुष्कर्म जैसी तमाम घटनाओं से देश की महिलाओं में विशेष डर घर करता जा रहा है।
निर्भया केस के बाद ऐसा लगने लगा था कि इस तरह के अपराधों पर रोक लगेगी, कमी आएगी,पर ऐसा होता दिखाई नहीं देता है। तुलसीदास जी ने कहा कि “भय बिनु होय न प्रीति” जब तक अपराधियों में सजा का भय नहीं होगा,सख्त से सख्त सजा नहीं दी जाएगी तो हम कैसे इन अपराधों पर नियंत्रण की बात भी सोच सकते हैं?अजमेर में हुई गेंगरेप की घटना में अपराधी को बत्तीस साल बाद केवल उम्रकैद की सजा मिलने से कैसे अपराधियों में खौफ पैदा होगा? विचार करने की आवश्यकता है पिछले कुछ वर्षों में भारत की केन्द्र और राज्य सरकारों ने महिलाओं की सुरक्षा को सुनिश्चित करने के लिए तथा उत्पीड़न और अपराध को रोकने के लिए जहां एक ओर नये कानून बनाएं है वहीं दूसरी ओर पूराने कानूनों को शसक्त करने हेतु उनमें संशोधन भी किये हैं।
इनमें प्रमुख हैं कार्यस्थल पर महिलाओं का यौन उत्पीड़न (रोकथाम,प्रतिषेध, और निवारण) अधिनियम, 2013; क्रिमिनल लॉ एक्ट, 2013(निर्भयाकानून); क्रिमिनल लॉ एक्ट, 2018 (संशोधन); दहेज निषेध (संशोधन) अधिनियम,2017; मुस्लिम महिला (विवाह अधिकार संरक्षण) अधिनियम 2019; प्रिवेंशन ऑफ चिल्ड्रन फ्राम सेक्सुअल ऑफेंसेस एक्ट 2012(संशोधन 2019);मातृत्व लाभ (संशोधन) अधिनियम,2017; घरेलू हिंसा से महिला संरक्षण अधिनियम,2005(संशोधन),पाॅक्सो एक्ट 2019 (संशोधन) आदि । किन्तु क्या ऐसे तमाम नियम-कानून महिलाओं से जुड़े अपराध रोक पाने में सफल हो पा रहे हैं? क्या इनका सही निष्पक्ष क्रियान्वयन हो रहा है?इस पर समीक्षा और विचार होना चाहिए। चिंता का विषय यह है कि महिलाओं पर अपराध उस समय हो रहे हैं जबकि देश में कठोर नियम कानून होने के साथ-साथ इन्हें रोकने के उद्देश्य से जागरूकता बढ़ाने की दिशा में भी विभिन्न सरकारी एवं स्वयंसेवी संस्थाएं लगातार प्रयास कर रही हैं। ‘मी टू’ जैसे आंदोलन भी महिलाओं से जुड़े यौन उत्पीड़न के खिलाफ आवाज उठाने में महत्वपूर्ण भूमिका निभा रहे हैं। समय-समय पर आम जनता भी महिलाओं की सुरक्षा के लिए सड़कों पर आंदोलन करती दिखाई देती है। यक्ष प्रश्न यह है कि इतना सब होने के बाबजूद भी भारत के सभी प्रदेशों में कमोबेश महिलाओं के खिलाफ होने वाली छेड़-छाड़, अपराध, अपहरण , यौन उत्पीड़न, बलात्कार ,एसिड अटैक, और स्टॉकिंग जैसी घटनाएं रुकने का नाम क्यों नहीं ले रही हैं?(राष्ट्रीय अपराध रिकार्ड ब्यूरो के आंकड़े चिंता जनक है)।
क्या पुलिस, न्यायपालिका, और अन्य संस्थानों की धीमी प्रक्रिया, देश में व्याप्त भ्रष्टाचार, अपराधियों को रसूखदारों का समर्थन और संरक्षण,अकुशल जांच प्रणाली, विलम्बित और मंहगी न्याय व्यवस्था और सजा में नरमी के कारण अपराधियों में सजा का डर कम हो रहा है? क्या देश में अपराधियों ने कानूनों की परवाह करना बंद कर दिया है? क्या पुलिस को शीघ्र, निष्पक्ष तथा तकनीकी रूप से सशक्त जांच और अपराधी को सज़ा दिलाने हेतु प्रयास और तेज करने की आवश्यकता है?हर संगीन अपराध के अपराधी को खोजने और सजा दिलाने के लिए सीबीआई की मांग क्यों उठती है?
राज्य सरकारों की पुलिस पर आम जनता का भरोसा क्यों कम हो रहा है?क्या फास्ट ट्रैक कोर्ट में महिलाओं से जुड़े सभी अपराधों को लाने की आवश्यकता नहीं है?क्या न्यायिक प्रक्रिया को और सख्त और तेज करनी की आवश्यकता नहीं है?
क्या महिलाओं से हो रहे अपराध के खिलाफ सभी राजनीतिक दलों को जाति-धर्म और पार्टीलाइन से ऊपर उठकर एक आवाज में विरोध नहीं करना चाहिए? क्या राजनीति से परे इस पर मंथन नहीं होना चाहिए? क्या कार्यलय प्रमुखों को अपने-अपने संस्थान में तथा सरकारों को सार्वजनिक स्थलों पर आज के वातावरण में महिला सुरक्षा के लिए विशेष सुरक्षा व्यवस्था बनाने की आवश्यकता नहीं है? क्या भारत में शिक्षा,संस्कार, संस्कृति, वातावरण और परिवारजन इस तरह के अपराधों को रोकने में असफल होते जा रहे हैं? आखिर महिला अपराधों के लिए ज़िम्मेदार कौन है?इन घटनाओं के पीछे का सच क्या है?
आज भी महिलाओं को पुलिस और न्याय प्रणाली तक पहुंचने में तरह तरह की कठिनाईयों का सामना करना पड़ता है। अशिक्षित ,कम पढ़े-लिखे,पिछड़े, वंचित, गरीब परिवार की महिलाओं में अधिकारों और कानूनी उपायों के प्रति जागरूकता की भी कमी है,जो उन्हें कमजोर बनाती है।
यह भी चिंतन करना समय की मांग है कि क्या भारतीय सामाज का नजरिया बदल रहा है जिसके अंतर्गत महिलाओं के खिलाफ हो रही हिंसा को अक्सर नज़र अंदाज़ किया जाता है, या हल्के में लिया जाता है या मौन रहकर, अनदेखी कर सही ठहराने के प्रयास होते हैं?कई बार पीड़िता को ही दोषी ठहराने के प्रयास होते हैं, जिसके कारण वे शिकायत दर्ज कराने से हिचकिचाती हैं। वहीं कई बार शिकायत दर्ज कराने के बाद पीड़िता और उसके परिवार को सामाजिक बहिष्कार, धमकी, और बदनामी का सामना करना पड़ता है, समझोता करने के लिए मजबूर होना पड़ता है जिसकी वजह से भी पीड़िता न्याय के लिए आवाज उठाने से डरती हैं।मेरा ऐसा मानना है कि जब तक हर पीड़िता निडर होकर अपराधी को सज़ा दिलाने के लिए आगे नहीं आएगी और भारतीय समाज हर बंधनों से मुक्त होकर पीड़िता के समर्थन में और दोषी के विरुद्ध नहीं खड़ा होगा तब तक भारत से महिलाओं के साथ हो रहे अपराधों को समाप्त करना मुश्किल ही नहीं नामुमकिन दिखाई देता है।
लेखक:डा मनमोहन प्रकाश